Wednesday, September 16, 2009

PANCHADASHI - 3

तथा स्वप्नेSत्र वेद्यं तु न स्थिरं जागरे स्थिरम् ।
तद् भेदोSतस्तयो: संवित् एकरूपा न भिद्यते।।४।।

'स्वप्न में भी तद्वत् है। यहाँ वेद्य विषय स्थिर नहीं होते किन्तु जाग्रत् अवस्था में स्थिर होते हैं। इसलिये दोनों अवस्थाओं में भेद है। किन्तु दोनों अवस्थाओं का संवित् (ज्ञान)एक रूप है। उसमें भेद नहीं है।'
व्याख्या-स्वप्नावस्था में भी विषयों की अनकेता और ज्ञान की एकता उसी प्रकार है जैसे जाग्रत् अवस्था में-'तथा स्वप्ने'। स्वप्न में जाग्रत् के समान शब्द, स्पर्श आदि विषयों का ज्ञान होता है। विषयों की उपाधि से वह नाना प्रकार का भासित होने पर भी ज्ञान तत्त्वत: एक ही है। प्रत्येक विषय के साथ ज्ञान परिवर्तित या विकृत नहिं होता।

यदि दोनों अवस्थाओं में विषयों की भिन्नता और ज्ञान की एकता है तो उन अवस्थाओं में अन्तर क्या है? अन्तर यही है कि जाग्रत् अवस्था के विषय स्थिर हैं। सोकर उठने पर हम नित्य अपना वही कमरा, वही मेज, वही कुर्सी पाते हैं जो हमने सोने के पहले छोडी थी। इनमें स्थिरता दिखाई देती है, ऐसी स्थिरता स्वप्न की वस्तुओं में नहिं है। हर बार स्वप्न में वे वस्तुयें बदली हुई दिखाई देती हैं। हम वहाँ यह अनुभव नहिं करते कि हमने जो वस्तु कल यहां स्वप्न में देखी थी वही आज फिर देख रहे हैं। यद्यपि हम कभी-कभी एक ही समान दो बार स्वप्न देख सकते हैं, फिर भी उससे स्वप्न की वस्तुओं की स्थिरता सिध्द नहीं हो जाती। इसके अतिरिक्त स्वप्न की वस्तुयें देखते-देखते गायब हो जाती हैं और नई-नई प्रकट भी होती रहती हैं। यदि कहीं पडा हुआ एक रुपया दिखाई देता है तो हम सोचते हैं कि शायद आस-पास और भी रुपये पडे हों। इतना सोचते ही अन्य अनेक रुपये दिखाई देने लगते हैं। यद्यपि वहां नहिं थे तो भी प्रकट हो जाते हैं। यदी शंका होती है कि हमारी जेब से ये रुपये गिर न जायें तो सचमुच हमें अपनी जेब खाली मिलती है। तात्पर्य यह है कि स्वप्नावस्था के विषय जाग्रत् की अपेक्षा अस्थिर और क्षणिक होते हैं। यही दोनों अवस्थाओं के अनुभव का अन्तर है।

स्वप्न की वस्तुओं का अस्थिर स्वभाव देखकर ही हम स्वप्न को मिथ्या कहते हैं। जाग्रत् की वस्तुयें उसकी अपेक्षा अधिक स्थिर हैं इसलिये हम इसे सत्य समझते हैं। क्या इन दोनों अवस्थाओं का ज्ञान एक दूसरे से भिन्न है? क्या स्वप्न का ज्ञान दूसरा है और जाग्रत् का ज्ञान दूसरा है? क्या स्वप्न का ज्ञान भी स्वप्न की वस्तुओं के समान अस्थिर और नश्वर है? यद्यपि स्वप्न के विषय भिन्न-भिन्न प्रकार के और अस्थिर हैं, तो भी उनका ज्ञान एकरूप और स्थिर है। इसलिए यद्यपि स्वप्न मिथ्या समझा जाता है किन्तु स्वप्न का ज्ञान मिथ्या नहिं होता। स्वप्न का ज्ञान भी वही है जो जाग्रत् में हम विषय से पृथक् कर शुध्द रूप में अनुभव करते हैं। एक ही ज्ञान से हम स्वप्न और जाग्रत् की पृथक् अवस्थाओं का अनुभव करते हैं। जो जाग्रत् का द्रष्टा है वही स्वप्न का द्रष्टा है। अपने एक ही ज्ञान में हम दोनों अवस्थाओं को आते-जाते देखते हैं। इसलिए ज्ञान की एकता जाग्रत् से स्वप्न तक एक समान है।

यही ज्ञान सुषुप्ति अवस्था में भी व्याप्त है, यह दिखाने के लिए पहले सुषुप्ति अवस्था के विषय में बताते हैं-


सुप्तोत्थितस्य सौषुप्त तमबोधो भवेत्स्मृति: ।
सा चावबुध्द विषयाSव बुध्दं तत्तदा तम: ।।५।।


'सोकर उठे पुरुष को सुषुप्ति अवस्था के अज्ञान का बोध होता है, उसे स्मृति कहते हैं। वह स्मृति अनुभव किये गये विषय की है, क्योंकि वह अज्ञान उस अवस्था में अनुभव हुआ था।'

व्याख्या--भारतीय दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष आदि ज्ञान के छ: साधन माने हैं। वे छ: प्रमाण प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि हैं। स्मृति ज्ञान का साक्षात् साधन नहीं है। वह किसी प्रमाण से प्राप्त पूर्व ज्ञान की पुनरावृत्ति है। पहले कभी देखी हुई वस्तु यदि कालान्तर में पुन: बुध्दि में आती है तो उसे 'स्मृति' कहते हैं। स्मृति ज्ञान यह सिध्द करता है की हमने वह ज्ञान पहले कभी प्रमाण से प्राप्त किया था।

सोकर जागने पर हमें स्मृति होती है कि अभी कुछ देर पहले इतनी नींद में सोते रहे कि कुछ भी पता न चला। कोई स्वप्न भी नहीं दिखाई दिया। सोते समय कुछ भी न जान पाने की स्मृति यह सिध्द करती है कि कुछ काल पहले यही हमारा अनुभवजन्य ज्ञान था। इससे सिध्द होता है कि सुषुप्ति में कुछ न ज्ञात होने का ज्ञान रहता है। वहां ज्ञान का अभाव नहिं है। केवल ज्ञान के विषय का अभाव है। विषय का अभाव तम रूप में भासित होता है।
सुषुप्ति अवस्था में रहने वाला शुध्द ज्ञान वही है जो जाग्रत् और स्वप्न अवस्थाओं में था-

Sunday, September 13, 2009

Panchadashi - 2


तत्पादाम्बुरूह द्वन्द्व सेवानिर्मल चेतसाम्।
सुखबोधाय तत्त्वस्य विवेकोsयं विधीयते।।२।।

'उन दोनों पाद-पद्मों की सेवा से जिनका चित्त निर्मल हो गया है उन्हें सुखपुर्वक तत्त्व का ज्ञान कराने के लिए इस विवेक की रचना की जा रही है।'

व्याख्या-'तत्पाद'-उन श्री शंकरानन्द महाराज के चरण जिनका उल्लेख पिछले श्लोक में हो चुका है। वहां 'गुरु-पादाम्बुजन्मने' पद एक वचन में रखा गया था। व्याकरण के 'जातित्वादेकवचनम्' नियम से एक जाति की अनेक वस्तुओं के लिए एक वचन का प्रयोग हो सकता है। यहां 'द्वन्द्व' कहकर गुरु के दोनों पदों की ओर ध्यान दिलाया गया है। वे दोनों चरण ज्ञान और वैराग्य हैं। उनकी सेवा करने से चित्त निर्मल होता है और आत्म-सुख का अनुभव होता है। चित्त विषयों के मल से मलीन होता है। उसे साफ किये बिना उस पर आत्म-ज्ञान का रंग नहीं चढता। विषयों में राग न रहने से चित्त निर्मल हो जाता है, और उसमें परमात्मा का प्रकाश प्रकट हो जाने से आनन्द छा जात है।

विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति और मुमुक्षत्व साधन चतुष्ट्य कहलाते हैं। इन गुणों से सम्पन्न पुरुष तत्त्वज्ञान का अधिकारी होता है। अत: इन्हीं गुणों को अधिकारी पुरुष का लक्षण भी मानते हैं। नित्य और अनित्य वस्तु की पहचान करने वाली बुध्दि का नाम है विवेक। विषय सुख की अनित्यता समझ कर उनका राग त्याग देना वैराग्य है। शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रध्दा और समाधान ये षट्सम्पत्तियां हैं। अध्यात्म पथ पर इन्हीं के बल पर प्रगति होती है। इसलिए इन्हें आध्यात्मिक सम्पत्ति कहते हैं। कर्म-बंधन और उससे प्राप्त होने वाले जन्म-मृत्यु के दु:खों को हेय समझकर उनसे छुटकारा पाने की प्रबल इच्छा का नाम मुमुक्षा है।

ऐसे चित्त-शुध्द अधिकारी को तत्त्वबोध कराने के लिए ग्रन्थकार 'प्रत्यक्-तत्त्व-विवेक' नामक इस प्रकरण की रचना करते है। उपाधि रहित निर्मल शुध्द वस्तु को तत्त्व कहते हैं। यहां तत्त्व का तात्पर्य सच्चिदानन्द घन परब्रह्म है। वही अपना सत्स्वरूप है। शरीर आदि उपाधियों से पृथक् कर उसका अनुभव प्राप्त करना तत्त्व-विवेक है।

आत्म चेतना की नित्यता
जीव का शुध्द स्वरूप आत्मा है। सत्, चित्, और आनन्द उसके लक्षण हैं। युक्त्ति और अनुभव के द्वारा इनका बोध कराने के लिए पहले आत्मा की सत्यता सिध्द करते हैं। इस पर्कृया से ज्ञात से अज्ञात की ओर जाते हैं।

शब्दस्पर्शादयो वेद्या वैचित्र्याज्जागरे पृथक्।
ततो विभक्तास्तत्संविदैकरूप्यान्न भिद्यते।।३।।

'स्पष्ट व्यवहार वाली जाग्रत अवस्था में ज्ञान के विषयभूत शब्द, स्पर्श आदि विषय अलग-अलग धर्म वाले होने से वे एक दूसरे से अलग-अलग हैं किन्तु उनसे पृथक् रहने वाला उनका संवित् एकरूप होने के कारण भेद वाला नहीं होता है।'

व्याख्या--जीव की तीन अवस्थायें हैं-जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। जब शरीर में स्थित होकर इंद्रियों से बाह्य जगत् का ज्ञान हो तो वह जाग्रदावस्था है। जब इंद्रियां मन मे लय हो जाती हैं और मन से विषयों का ज्ञान होता है तो उसे स्वप्नावस्था कहते हैं। मन के भी लीन होने पर जब विषयों का ज्ञान नहीं होता तो वह सुषुप्ति अवस्था है।

पहले जाग्रत् अवस्था में हो रहे ज्ञान का विचार करें। इस समय श्रोत्र, त्वक्, नेत्र, जिव्हा और नासिका से क्रमश: शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध पाँच विषयों का ज्ञान होता है। जगत् की सभी वस्तुओं का ज्ञान इन्हीं पाँच रूपों मे होता है। विषयों के पाँच रूप होने के कारण ज्ञान भी पाँच प्रकार का होता है, जैसे शब्दज्ञान, स्पर्श ज्ञान आदि। किन्तु शुध्द ज्ञान एक ही है। वही एक ज्ञान शब्द ग्रहण करने पर शब्दज्ञान है और स्पर्श ग्रहण करने पर स्पर्शज्ञान है। हम अपने अनुभव से जानते हैं कि हमारे एक ज्ञान में ही शब्द आदि विषय एक के बाद एक आते हैं। विषय बदलते रहते हैं, किन्तु उनको ग्रहण करने वाला एक ही रहता है। विषय के बदलने के साथ ज्ञान नहीं बदलता। जैसे एक किलो बाँट से एक किलो गेहूँ तौलने के बाद, एक किलो चीनी और फिर एक किलो दाल तौलते हैं, तो तौली हुई वस्तु बदलती जाती है किन्तु एक किलो का बाँट वही रहता है, वैसे ही एक ही ज्ञान से सब विषय जाने जाते हैं। विषयों के बदलने पर ज्ञान नहीं बदलता।

इस प्रकार विषयों की अनेकता देखकर हम कह सकते हैं कि विषय विभक्त हैं, उनमें भेद है, किन्तु ज्ञान अविभक्त है उसमे भेद नहीं है। नाना रूप विषय, ज्ञान की उपाधि हैं, जैसे घट, मठ आदि आकाश की उपाधियाँ हैं। एक अविभक्त आकाश घट की उपाधि से घटाकाश और मठ की उपाधि से मठाकाश कहलाता है। इसी प्रकार एक ही अविभक्त ज्ञान शब्द की उपाधि से शब्दज्ञान और रूप की उपाधि से रूपज्ञान समझा जाता है। तात्पर्य यह है कि जाग्रत् अवस्था में विषयों का अनुभव करते समय विषयों की अनेकता, परिवर्तनशीलता और उनके गतागत स्वभाव को पहचान कर ज्ञान की एकता, अपरिवर्तनशीलता और नित्यता को समझने का प्रयास करना चाहिये। इसी ज्ञान की डोर को पकडकर हम आगे आत्मज्ञान की ओर बढेंगे। इस ज्ञान के शुध्द स्वरूप का ज्ञान ही आत्मज्ञान है।

जाग्रत् अवस्था में ज्ञान के एकत्व को पहचान कर स्वप्नावस्था में भी उसी ज्ञान की एकता देखनी चाहिए-

Thursday, September 10, 2009

Panchadashi


ॐ तत्सत्श्री परमात्मने नम:
श्री पञ्चदशी
ग्रन्थकार : श्री विद्यारण्य स्वामी
व्याख्याकार : स्वामी शंकरानन्द

प्रस्तावना

मानव मात्र के लिए कल्याणकारी जीवन जीने का विधान वेद मे संग्रहीत है। वेद की ही अन्तिम शिक्षा वेदान्त है। उसे उपनिषद भी कहते हैं। उसका परम पवित्र ज्ञान मनुष्य को सब कल्मष से मुक्त कर आनन्द, शान्ति और पुर्णता प्रदान कर देता है। प्रबुध्द लोग प्राचिन काल से ही उसका आदर करते आ रहे हैं। पहले यह ज्ञान भारत में ही केन्द्रित था, किन्तु अब संसार की सभी भाषाओं में यह ज्ञान उपलब्ध है। वैज्ञानिक विकास के साथ आवागमन और सम्पर्क के साधन बढे और उसी के साथ यह ज्ञान भि दुर-दुर फैला। अन्य देशों में इसका आदर होते देखकर हम भारतवासियों ने भि अपने पूर्वजों के द्वारा आर्जित् इस सम्पत्ति का मूल्य समझा और इसका अध्ययन कर इसे अपने जीवन में लानेका प्रयास कर रहे हैं।

वेद और उपनिषदों कि भाषा तथा उनकी शैली कुछ जटिल है अथवा यह कहें कि आधुनिक भाषाओं का प्रयोग कर रहे मनुष्यों के लिए उनकि भाषा अभ्यास से बाहर होने के कारण कठिन प्रतीत होती है। इस समस्या का निवारण करने का प्रयास पहले भि हुआ है और अब भि हो रहा है। इसी कारण वेदान्त के नये-नये ग्रन्थों कि रचना होती रहती है। शंकराचार्य जी ने उपनिषद् आदि आर्ष ग्रन्थों पर भाष्य लिखकर उनका तात्पर्य स्पष्ट किया है और उन्होने वेदान्त-दर्शन पर अनेक ग्रन्थ भि लिखे हैं। उनके बाद उनके शिष्यों और अनुयायियों ने भि इस दिशा मे प्रयास जारी रखा। उनकी रचनाओं में श्री विद्यारण्य स्वामी के कइ ग्रन्थ बडे महत्वपुर्ण और् ख्यातिप्राप्त हैं। वे भगवान् शंकराचार्य द्वारा स्थापित श्रींगेरिमठ के आचार्य पद पर सन् १३७७ से १३८६ तक आसीन रहे। वे वेद-भाष्य रचयिता श्री सायण के भाई थे और स्वयं भी बडे विद्वान थे। उन्होने पञ्चदशी, सर्वदर्शन्-संग्रह, श्री शंकर दिग्विजय, जीवन-मुक्ति विवेक, अनुभूति प्रकाश, विवरण प्रमेय संग्रह, उपनिषद् दीपिका आदि कई ग्रन्थ लिखे हैं। दृग्दृश्य विवेक पुस्तक के रचयिता भगवान् शंकराचार्य हैं अथवा विद्यारण्य स्वामि, इस विषय मे विवाद है।

श्री विद्यारण्य स्वामी की अन्य सभी रचनाओं की अपेक्षा 'पञ्चदशी' अधिक लोकप्रिय हुई है। इसमे अद्वैत वेदान्त का निरुपण क्रमबध्द, स्पष्ट और सविस्तार हुआ है। यद्यपि इसमे विरोधी मतों के खण्डन का प्रयास नहिं किया गया है फिर भी प्रतिपाद्य विषय को स्पष्ट करने के लिए उनमें दोष अवश्य दिखाये गये हैं। ग्रन्थ का मुख्य उद्देश्य वेदान्त में रुचि रखने वाले व्यक्तियों को उसका सुखपूर्वक सम्यक् ज्ञान कराना ही है। लेखक ने इस विषय का प्रमाण उपनिषद् माना है, इसलिए मन्त्रों को उद्धृत करने मे कोई संकोच नहीं किया गया है। तर्क उपनिषद् प्रतिपादित सत्य का अनुगामी रहा है। तदनुरूप अनुभव प्राप्त करना उसका अन्तिम प्रमाण है। उसके साथ वेदान्त ज्ञान का फल जुडा हुआ है। ब्रह्म और आत्मा के एकत्व ज्ञान के अनुभव में ही कृत्कृत्यता, मुक्ति और् परमानन्द कि उपलब्धि है।

हमारे समस्त दु:खों का अन्तिम कारण अज्ञान है। अज्ञान के कारण हि हम अपने सत्स्वरुप को भुलकर असत् शरीर आदि को हि अपना रूप मान बैठे हैं। देहात्मबुध्दि के कारण हम विकारी, मरणधर्मा और क्षुद्र बन गये। जगत् के विषयों को सत्य, सुखदायी और मूल्यवान समझ कर उनमें आसक्त हो गये। यह भ्रन्ति बने रहने तक दु:ख से छुटकारा नहीं हो सकता।

वेदान्त-दर्शन भ्रान्ति और दु:ख से मुक्त होने के लिये विचार का मार्ग प्रशस्त करता है। विवेक बुध्दि सत्-असत् का विश्लेषण करती है। व्यवहार के छोटे से दायरे में हम सब विवेकवान हैं, किन्तु दु:खोंकि आत्यन्तिक निवृत्ति के लिए इतना विवेक पर्याप्त नहिं है। घर के भितर एक बालिका सफाई करते समय इतना विवेक रखती है कि अनुपयोगी कुडा क्या है जिसे घर के बाहर फेंक देना चाहिए। उपयोगी वस्तुओं को वह संभाल कर घर मे रखती है। किन्तु जब उसकी मां उसे पडोसी के घर खेलने नहीं जाने देती तो उसे यह समझना कठिन हो जाता है कि इसमे मां का क्या विवेक है। बडे होने पर वह जान जाति है कि उसका क्या रहस्य था। स्वयं मां बनने पर वह अपनी पुत्री को उसी प्रकार कि शिक्षा देती है। वेदान्त-दर्शन हमें विवेकवान बनने के लिए इसके आगे ले जाता है। वह समस्त विश्व को अपने विचार का विषय बनाकर सत्-असत् का विवेक करने के लिए प्रेरित करता है। यह विवेक का अन्तिम रूप है।

सभी वेदान्त ग्रन्थों में सत् और असत् कि परिभाषायें देकर अपने बाहर-भितर उनकि पहचान करने कि प्रकृया बताई गयी है। यहां अपनी सत्ता से स्वतन्त्र रुप में विद्यमान, नित्य और निर्विकार् वस्तु को सत् स्वीकार किया जाता है। इन लक्षणों वाली वस्तु एक हि है, उसे आत्मा कहेते हैं। वही परमात्मा या ब्रह्म है। इसके अतिरिक्त जो कुछ नाम्-रूपात्मक भासित होता है, वह असत् या मिथ्या है। हमारी समस्या यह है कि हम असत् नामरूपात्मक विकारों को ही सत् समझते हैं और उन्हीं को अपनी सत्ता समझते हैं।

इस असत् के मायाजाल से निकल कर अपने वास्तविक आत्म-स्वरूप को खोजना और पहचानना ही वेदान्त के अनुसार हमारे जीवन का चरम लक्ष्य है। इसके लिए अनेक उपाय बताये जाते हैं। उनमे से कुछ अवस्थात्रय विवेक, पञ्चकोश विवेक, द्रष्टादृष्य विवेक, महाभूत विवेक आदि हैं। इन उपायों से अपना वह स्वरूप मिल जाता है जिसे जानकर हम अपने को अमर, पुर्ण, अभय और आनन्दमय पाते हैं।

ध्यान देने की बात यह है कि विवेक विचार कि यह प्रक्रिया हम स्वतन्त्र रूप से अपना कर कभी सफल नहीं हो सकते। इस मार्ग पर सफलतापूर्वक आगे बढे लोगों का अनुभव है कि अत्यधिक विचक्षण पुरुष भी अपने आप विचार कर आत्मज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते। उन्हे पूर्व सफलता प्राप्त आत्मज्ञानी पूरुषों के मुख से वेदान्त ज्ञान का श्रवण करते हुए उपनिषद् आदि ग्रन्थों का अध्ययन और उनके महावाक्यों के अर्थ का चिन्तन करना चाहिए। श्रवण के द्वारा ज्ञान होता है कि हमारी पूर्व धारणायें मिथ्या थीं। उनका त्याग कर अब नयी धारणायें बनानी चाहिए। यह कार्य करने के लिए मनन करने की प्रक्रिया उपयोगी है। इस प्रकार श्रवण और मनन के अभ्यास से आत्मज्ञान होने पर उसकी निष्ठा बनाये रखने का प्रयास निदिध्यासन है। योग-दर्शन में प्रत्यय एकतानता को ध्यान कहेते हैं और वेदान्त में वहि निदिध्यासन है।

उत्तम अधिकरियों को श्रवण मात्र से ही आत्मज्ञान हो सकता है किन्तु अन्य साधकों को मनन और निदिध्यासन का अभ्यास करना अपेक्षित होता है। प्रारम्भिक साधक को आत्म-चिन्तन एक कल्पना मात्र प्रतीअ होती है, किन्तु उसे शास्त्र सम्मत मान कर निरन्तर करते रहने से वस्तुत: आत्मा कि उपलब्धि होती है। साधना के फलस्वरूप आत्म-साक्षात्कार होना और उसमें तृप्ति का अनुभव केवल कल्पना या मिथ्या धारणा नहिं है। उसका प्रमाण यही है कि किसी अन्य ज्ञान के द्वारा उसका बाध नहिं होता।

आत्मज्ञानी पुरूष ही जीवनमुक्त है। वह शरीर में रहते हुए मुक्ति का आनन्द अनुभव करता है। यद्यपि उसे अपने लिए शरीर की अपेक्षा नहीं रहती, किन्तु वह शरीर कि सहायता से अन्य लोगों को अपनी अनुभूतियों के द्वारा मार्ग-दर्शन दे सकता है। इसलिए जीवन्मुक्त पुरुष अपने आप में परब्रह्म परमात्मास्वरूप हैं और समाज के लिए बीच समुद्र में खडे दीप स्तम्भ के समान उज्वल आदर्श हैं। उन्हीं के द्वारा मानवता का विकास होता है और यह जगत् सर्वसाधारण के लिए रहने योग्य बनता है।

'पञ्चदशी' ग्रन्थ के पन्द्रह अध्यायों में श्री विद्यारण्य स्वामी ने इस वेदान्त विद्या का विस्तृत विवेचन किया है। सभी अध्याय अपने आप में पुर्ण होते हुए भी वे सब मिलकर ग्रन्थ को सब प्रकार से उपयोगी बना देते हैं। सम्पुर्ण ग्रन्थ तीन भाग में विभक्त है। प्रथम पाँच अध्याय 'विवेक' नाम से, दुसरे पाँच अध्याय 'दीप' नाम से और अन्तिम पाँच अध्याय 'आनन्द' नाम से अभिहित किए गए हैं। इससे ज्ञात होता है कि विवेक नामक अध्याओं में सत् वस्तु की खोज की गयी है, दीप नामक अध्याओं में उस सत् का अनुभव कराया गया है और आनन्द नामक अध्याओं में उस वस्तु के आनन्द का निरूपण है। हम यह भी कह सकते हैं कि समस्त ग्रन्थ में परमात्मा का ही प्रतिपादन किया गया है। विवेक नामक प्रथम पंचक में उसके सत् स्वरूप् का, दीप नामक दूसरे पंचक में उसके चित् स्वरूप का और अन्तिम आनन्द नामक पंचक में उसके आनन्द स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। इसी क्रम से हम विवेक द्वारा असत् वस्तु का त्याग कर सत् स्वरुप आत्मा को पहचानने का प्रयास करते हैं, फिर उसके चित् स्वरूप का अनुभव कर उसके आनन्दस्वरूप तक पहुँच जाते हैं। अपने आत्मा में ही परमानन्द का अनुभव कर पुर्णता प्राप्त हो जाती है।

प्रत्यक्-तत्व-विवेक नामक पहले अध्याय में सम्पूर्ण ग्रन्थ का सार प्रस्तुत कर दिया गया है। उसी का विस्तार शेष समस्त अध्यायों में हुआ है। दूसरा अध्याय पंचमहाभूत-विवेक है। इसमें परमात्मा की शक्ति माया से समस्त पांचभौतिक स्रिष्टि की उत्पत्ति दिखा कर सत्स्वरूप परमात्मा और असत् या मिथ्यारूप स्रिष्टि के बीच विवेक किया गया है। इस विवेक से उत्पन्न ज्ञान-दृष्टि में एक सत्स्वरूप परमात्मा ही सर्वत्र दिखाई देने लगता है। मायामय जगत् तिरोहित हो जाता है। इसी के साथ समस्त भौतिक क्लेश भी समाप्त हो जाते हैं और जीवभाव का भी अन्त हो जाता है (२.१०४)।

पंचकोश-विवेक के द्वारा भी हम इसी निर्णय पर पहुँचते हैं। उसका विस्तृत वर्णन तीसरे अध्याय में है। अन्नमय आदि पाँच कोश हमारे सत्स्वरूप आत्मा पर एक प्रकार के आवरण हैं। मुंज की घास से उसकी पत्तियां हटाकर जैसे अन्दर की सींक निकाल ली जाती है अथवा सर्दियों में पहने हुए अनेक वस्त्रों को एक-एक कर उतार देते हैं और अपने शरीर तक पहुंच जाते हैं, उसी प्रकार अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और आनन्दमय कोशों को अनात्मा समझ कर जब हम अपनी दृष्टि अपने नित्य अस्तित्व की और फेरते हैं तो हमें अपने आत्मा का अनुभव होता है।

चौथे अध्याय में ईश्वरकृत और जीवकृत दो प्रकार की सृष्टियों का वर्णन किया गया है। पहली सृष्टि 'जगत्' और दूसरी सृष्टि 'संसार'। जीव ने स्वयं संसार की रचना कर अपने लिये समस्या उत्पन्न की है। यदि शास्त्र ज्ञान से वह अपना संसार निरस्त कर दे तो उसे मुक्त होने में देर नहीं। यहां संसार का वर्णन बडे स्पष्ट रूप में हुआ है।

पांचवा अध्याय चार महावाक्यों का विवेचन कर आत्मा और परमात्मा की एकता का निरूपण करता है।

छठा अध्याय 'चित्रदीप' है। उसमे वस्त्र पर बने चित्र का दृष्टान्त देकर कुटस्थ पर नाम-रूपात्मक जगत् की रचना बताई गयी है। वस्त्र पर रंगो के द्वारा जड भुमि, जल, पर्वत की रचना और पशु, पक्षी, मनुष्य आदि चेतन प्रणियों की रचना दिखाई जाती हैं। इसी प्रकार कूटस्थ परमात्मा पर आश्रित होकर समस्त जगत् का विस्तार हुआ है। जगत् तो कभी है कभी नहिं भी है किन्तु कुटस्थ सदा विद्यमान है। उसका निषेध नहीं हो सकता। यह कूटस्थ ही सबका आत्मा है। इस सत्स्वरूप आत्माका ज्ञान ही पुर्णता है। 'तृप्तिदीप' नामक सातवें अध्याय में इसी पुर्णता का वर्णन है। इसी में परम तृप्ति है। बृहदारण्यक उपनिषद् का एक श्लोक "आत्मानं चेद्विजानीयात......" (४.४.१२) ज्ञानी की इस स्थिति का वर्णन करता है और यह २९८ श्लोकों का अध्याय उसी एक श्लोक की व्याख्या करता है।
'कूटस्थदीप' नामक आठवें अध्याय में कूटस्थ आत्मा का पुन: निरूपण किया है और उसके सर्वाधिष्ठान, निर्विकार, निर्लेप और अविनाशी लक्षणों की तर्क के द्वारा स्थापना की है। उत्तम अधिकारी पुरुष विचार द्वारा ही उसका ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं किन्तु मध्यम अधिकारी चिन्तन द्वारा अपना चित्त उसमें स्थापित करते हैं। इस चिन्तन प्रकृया का वर्णन 'ध्यानदीप' नामक नवें अध्याय में किया गया है। उसमें सम्वादी और विसम्वादी भ्रम का अन्तर बता कर यह दिखाया गया है की ध्यान-साधना सम्वादी भ्रम का एक प्रकार है और उससे सत् की प्राप्ति होना सहज स्वाभविक है। निर्गुण ब्रह्म का चिन्तन करने पर चिन्तनीय वस्तु यद्यपि मन की कल्पना है, किन्तु उसके फलस्वरूप सत्स्वरूप ब्रह्म की उपलब्धि होती है।

दसवें अध्याय में नित्यानित्य और द्रष्टा-दृष्य का विवेक करने मे दीप के प्रकाश में हो रहे नाटक का उदाहरण दिया गया है। राज-सभा में दीपक जल रहा है। राजा तथा अन्य सभासद आकर अपने आसनों पर बैठते हैं। नृत्य करने वाला समाज और वादक आकर अपना नाटक प्रारम्भ करते हैं। राजसभा में उपस्थित ये सभी लोग दीपक के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं। सभा समाप्त होती है और सब लोग चले जाते हैं। कक्ष खाली हो जाता है। उसे भी दीपक प्रकाशित करता है। इसी प्रकार साक्षी चैतन्य अन्त:करण की सभी वृत्तियों को प्रकाशित करता है और सुषुप्तावस्था या तुरीयावस्था में उनके न होने को भी प्रकाशित करता है। वह साक्षी चैतन्य वृत्तियों के होने या न होने से किसी प्रकार प्रभावित नहीं होता। वह सदा निर्लेप ही रहता है।

आत्मा आनन्दस्वरूप भी है। इसके आनन्द का अनुभव करना ही आत्मज्ञान है। तर्क द्वारा भी सिध्द किया जा सकता है की आत्मा परम प्रेमस्वरूप होने के कारण आनन्दस्वरूप है। इस विषय का विवेचन अन्तिम पाँच अध्यायों में किया गया है। इस प्रकार समस्त ग्रन्थ वेदान्त के सभी पक्षों का गहराई से विस्तृत विवेचेन करता है। इससे साधकों को विचार और चिन्तन कर अपने लक्ष्य तक पहुंचने मे बदी सुविधा होती है। इसलिए वेदान्त-साधकों के बीच यह ग्रन्थ बहुत प्रचलित, उपयोगी और प्रसिध्द हुआ है।

-स्वामी शंकरानन्द
मंधना,कानपुर २०९२१७१० सितम्बर - १९९४


ॐ तत्सत। श्री परमात्मने नम:।
अध्याय १
प्रत्यक्-तत्त्व-विवेक

मंगलाचरण


ग्रन्थकार श्री विद्यारण्य स्वामी ने ग्रन्थ की रचना प्रारम्भ करने के पूर्व दो श्लोकों में परमात्मस्वरूप गुरु कि वन्दना की है। इसे मंगलाचरण कहते हैं। इसका उध्देश्य ग्रन्थ का निर्विघ्न समाप्त होना और अध्ययन करने वालों के लिए कल्याणकारी होना है। यह शिष्टजन परम्परा भी है।

नम: श्रीशंकरानन्द गुरुपादाम्बुजन्मने।
सविलास महामोह ग्राहग्रासैक कर्मणे।।१।।

विलास सहित महामोह रूपी ग्राह का ग्रास कर जाना ही जिसका मुख्य काम है ऐसे शंकरानन्द गुरु पादाम्बुजों को मैं नमस्कार करता हूं।

व्याख्या - श्री विद्यारण्य स्वामी के गुरु हैं श्री शंकरानन्द महाराज। उनका स्मरण कर और उनके चरण कमलों की वन्दना कर ग्रन्थ प्रारम्भ किया जाता है। गुरु-वन्दना में उनकी महिमा भी गाई गयी है। साथ ही उनके प्रति अपनी भक्त्ति भी प्रक्रट की गयी है। इससे यह सूचित होता है कि गुरु का मुख्य कार्य शिष्य के मोह का नाश करना है और शिष्य को इसका अधिकारी बनने के लिए गुरु-चरोणों में दृढ भक्ति रखनी चाहिए।

कोई भी विद्या गुरु-कृपा से ही प्राप्त होती है। वेदान्त ज्ञान तो गुरु से ही प्राप्त होता है। गुरु की कृपा से ही अज्ञान नष्ट होकर हृदयमें शुध्द ज्ञान और आनन्द का प्रकाश होता हैं इसलिए अध्यात्म विद्या के जिज्ञासु शिष्य को अपने गुरु में ईश्वर भाव रखकर भक्ति करनी चाहिए।

यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्था: प्रकाशन्ते महात्मन:।।

'जिस महात्मा के हृदय में परमात्मा के प्रति परम भक्ति हो और वैसी ही भक्ति गुरु में भी हो उसे शास्त्र में कहे गये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप अर्थ अथवा श्रुति में कथित वचनों का अर्थ प्रकाशित होता है।'

श्रुतियाँ आत्मा और परमात्मा की एकता का ज्ञान कराती है। गुरु-कृपा से वह ज्ञान ह्र्दय में प्रकट होता है। श्रुतियों ने स्वयं इस बात पर बल दिया है। छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार 'आचार्यवान् पुरुषो वेद'-अर्थात आचार्य (गुरु) की सेवा करने वाले को ही यह ज्ञान प्राप्त होता है। मुण्डक उपनिषद् में कहा गया है कि तत्व ज्ञान की जिज्ञासा होने पर गुरु के पास जाना चाहिए। 'तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्'-अर्थात जिज्ञासु को हाथ में समिधा लेकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु की शरण मे जाना चाहिए। इस श्रुति-वचन में सद्गुरु के लक्षण भी बता दिये गये हैं।

जो वस्तु जिसके पास होती है उसी से मिल सकती है। दरिद्री मनुष्य धनवान से ही धन प्राप्त कर सकता है। बंधे हुये मनुष्य को वही छुडा सकता है जो स्वयं छूटा हो। यदि दो व्यक्ति दो खम्भों में रस्सी से बंधे हों तो वे मुक्त होने में एक दूसरे की सहायता नहीं कर सकते। उनके अतिरिक्त जब कोई तीसरा मुक्त मनुष्य उनके पास आये और उन पर कृपा करे तभी वे मुक्त हो सकते हैं। इसी प्रकार गुरु होने का वही अधिकारी है जो स्वयं मोहमुक्त है। जिसने शाश्त्र का अध्ययन किया है, वही दूसरे को उसका अध्ययन करने में सहायता कर सकता है। मुण्डक और कठोपनिषद् में बंधे हुये मनुष्य का दृष्टान्त देकर यह श्लोक कहा गया है-

अविद्यायमन्तरे वर्तमाना:
स्वयं धीरा: पण्डिम्मन्यमाना:।
दन्द्रम्यमाणा: परियन्ति मूढा
अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा:।।

'अविद्या के भीतर रहते हुये भी अपने आपको बुध्दिमान और विद्वान् मानने वाले वे मूर्ख लोग नाना योनियों में चारों ओर भटकते हुए ठीक उसी प्रकार ठोकरें खाते हैं, जैसे अन्धे मनुष्य के द्वारा चलाये जाने वाले अन्धे अपने लक्ष्य तक नहिं पहुँचते।'

तात्पर्य यह है कि मनुष्य को ऐसे गुरु के पास जाना चाहिए जिसके ज्ञान के नेत्र खुले हों और स्वयं मोहमुक्त होकर आत्मानन्द में रमण कर रहा हो। श्री शंकरानन्द महाराज ऐसे ही गुरु हैं। उनके चरण कमलों की कृपा से मोह और उसके परिणामस्वरूप होने वाले दु:ख आदि सब मिट जाते हैं। विद्यारण्य स्वामी को इसका व्यक्तिगत अनुभव है।

संसार-सागर के जल में कमल भी उत्पन्न होते हैं और मगर भी। मगर सभी जल-जन्तुओं को खा जाता है, किन्तु कमल को नहिं खाता। कमल जल में रहते हुए भी उससे असंग रहता है। इसी प्रकार गुरु और शिष्य दोनों संसार में पडे प्रतीत होते हैं। किन्तु शिष्य तो मछली बन कर मोहरूपी मगर के मुख में दब जाता है, किन्तु गुरु कमल बन कर जल के ऊपर खिला प्रसन्न रहता है। वह अपनी सुगन्ध और शोभा सब और विकीर्ण करता है। वह अपना आदर्श प्रस्तुत कर शिष्य को असंग और ज्ञानवान बनने की प्रेरणा देता है। आश्चर्य की बात यह है कि ग्राह जैसे भयंकर मोह को अति कोमल चरण-कमल भी ग्रस जाने में समर्थ हैं। तात्पर्य यह है कि इस भयंकर, क्रुर संसार पर विजय पाने के लिए उससे भी अधिक दुर्धर्ष बनने की न आवश्यकता है, और उचित ही है। कोमल सत्त्विक भाव आर्जित कर दया, क्षमा और भक्ति द्वारा ही उस पर विजय पायी जा सकती है। एक छोटे अज्ञान को नष्ट करने के लिए एक बडा अज्ञान समर्थ नहिं होता। अज्ञान को ज्ञान ही नष्ट कर सकता है।

कमल और ग्राह के रूपक गुरु-कृपा की महिमा भी सूचित करते हैं। ऐसा प्रसिध्द है कि भगवान् शंकरचार्य ने अपने मंदमति शिष्य तोटक को अपनी कृपा से ज्ञानवान बना दिया। अन्य शिष्य जिसे उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे, वह तोटक छन्द का रचयिता बन गया। उसके मुख से सहसा श्लोकों का शुध्द उच्चारण सुनकर सभी लोग आश्चर्य में रह गये। अत: गुरु-कृपा से असंभव भी संभव बन जाता है।

इस श्लोक की रचना इतनी कुशलता से हुई है कि इसके द्वारा ग्रन्थ का अनुबंध चतुष्टय भी सूचित हो जाता है। ग्रन्थ की रचना के प्रारम्भ में ग्रन्थकार अपनी कृति के विषय में चार सूचनायें देता है, उन्हे अनुबंध चतुष्टय कहते हैं। विषय, सम्बन्ध, प्रयोजन और अधिकारी-इन चारों का सम्बन्ध ही अनुबंध है। वेदान्त ग्रन्थों का प्रतिपाद्य 'विषय' आत्मा और ब्रह्म की एकता होती है। इस श्लोक में 'शंकर' ब्रह्म है और 'आनन्द' आत्मा है। दोनों की एकता शंकरानन्द है। विषय और ग्रन्थ का सम्बन्ध प्रतिपाद्य-प्रतिपादक 'संबन्ध' है। ग्रन्थ का 'प्रयोजन' उसकी रचना का उध्देश्य होता है। महामोह का नाश और आत्मज्ञान के द्वारा परमानन्द की प्रप्ति कराना ही इसका प्रयोजन सूचित होता है। यदि कहो कि इस प्रयोजन से तो पहले ही अनेक ग्रन्थों की रचना हो चुकी है, तो अगले श्लोक में कहेंगे 'सुखबोधाय' अर्थात सरलाता से आत्मज्ञान होना ही इसका विशेष प्रयोजन है। 'अधिकारी' वही है जिसका हृदय में गुरु-चरणों की भक्ति है। अन्तिम दो प्रयोजनों का विस्तृत उल्लेख अगले श्लोक में किया गया है।